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Saturday, December 13, 2014

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Tuesday, April 8, 2014

FULL GOPI GEET IN HINDI

गोपी गीतश्रीमदभागवत महापुराण के दसवें स्कंध के रासपंचाध्यायी का ३१ वां अध्याय है। इसमें १९ श्लोक हैं । रास लीला के समय गोपियों को मान हो जाता है । भगवान् उनका मान भंग करने के लिए अंतर्धान हो जाते हैं । उन्हें न पाकर गोपियाँ व्याकुल हो जाती हैं । वे आर्त्त स्वर में श्रीकृष्ण को पुकारती हैंयही विरहगान गोपी गीत है । इसमें प्रेम के अश्रु,मिलन की प्यासदर्शन की उत्कंठा और स्मृतियों का रूदन है । भगवद प्रेम सम्बन्ध में गोपियों का प्रेम सबसे निर्मल,सर्वोच्च और अतुलनीय माना गया है।


गोप्य ऊचुः
(गोपियाँ विरहावेश में गाने लगीं)
जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि ।
दयित दृश्यतां दिक्षु तावका स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते ॥1
(हे प्यारे तुम्हारे जन्म के कारण वैकुण्ठ आदि लोकों से भी व्रज की महिमा बढ गयी है। तभी तो सौन्दर्य और मृदुलता की देवी लक्ष्मीजी अपना निवास स्थान वैकुण्ठ छोड़कर यहाँ नित्य निरंतर निवास करने लगी है इसकी सेवा करने लगी है। परन्तु हे प्रियतम देखो तुम्हारी गोपियाँ जिन्होंने तुम्हारे चरणों में ही अपने प्राण समर्पित कर रखे हैं वन वन भटककर तुम्हें ढूंढ़ रही हैं।।)

शरदुदाशये साधुजातसत्सरसिजोदरश्रीमुषा दृशा ।
सुरतनाथ तेऽशुल्कदासिका वरद निघ्नतो नेह किं वधः ॥2
(हे हमारे प्रेम पूर्ण ह्रदय के स्वामी हम तुम्हारी बिना मोल की दासी हैं। तुम शरदऋतु के सुन्दर जलाशय में से चाँदनी की छटा के सौन्दर्य को चुराने वाले नेत्रों से हमें घायल कर चुके हो । हे हमारे मनोरथ पूर्ण करने वाले प्राणेश्वर क्या नेत्रों से मारना वध नहीं हैअस्त्रों से ह्त्या करना ही वध है।।)

विषजलाप्ययाद्व्यालराक्षसाद्वर्षमारुताद्वैद्युतानलात् ।
वृषमयात्मजाद्विश्वतोभया दृषभ ते वयं रक्षिता मुहुः ॥3
(हे पुरुष शिरोमणि यमुनाजी के विषैले जल से होने वाली मृत्यु अजगर के रूप में खाने वाली मृत्यु अघासुर इन्द्र की वर्षा आंधी बिजलीदावानल वृषभासुर और व्योमासुर आदि से एवम भिन्न भिन्न अवसरों पर सब प्रकार के भयों से तुमने बारबार हम लोगों की रक्षा की है।)

न खलु गोपिकानन्दनो भवानखिलदेहिनामन्तरात्मदृक् ।
विखनसार्थितो विश्वगुप्तये सख उदेयिवान्सात्वतां कुले ॥4
(हे परम सखा तुम केवल यशोदा के ही पुत्र नहीं होसमस्त शरीरधारियों के ह्रदय में रहने वाले उनके साक्षी हो,अन्तर्यामी हो । ब्रह्मा जी की प्रार्थना से विश्व की रक्षा करने के लिए तुम यदुवंश में अवतीर्ण हुए हो।।)

विरचिताभयं वृष्णिधुर्य ते चरणमीयुषां संसृतेर्भयात् ।
करसरोरुहं कान्त कामदं शिरसि धेहि नः श्रीकरग्रहम् ॥5
(हे यदुवंश शिरोमणि तुम अपने प्रेमियों की अभिलाषा पूर्ण करने वालों में सबसे आगे हो । जो लोग जन्म-मृत्यु रूप संसार के चक्कर से डरकर तुम्हारे चरणों की शरण ग्रहण करते हैंउन्हें तुम्हारे कर कमल अपनी छत्र छाया में लेकर अभय कर देते हैं । हे हमारे प्रियतम सबकी लालसा-अभिलाषाओ को पूर्ण करने वाला वही करकमलजिससे तुमने लक्ष्मीजी का हाथ पकड़ा हैहमारे सिर पर रख दो।।)

व्रजजनार्तिहन्वीर योषितां निजजनस्मयध्वंसनस्मित ।
भज सखे भवत्किंकरीः स्म नो जलरुहाननं चारु दर्शय ॥6
(हे वीर शिरोमणि श्यामसुंदर तुम सभी व्रजवासियों का दुःख दूर करने वाले हो । तुम्हारी मंद मंद मुस्कान की एक एक झलक ही तुम्हारे प्रेमी जनों के सारे मान-मद को चूर-चूर कर देने के लिए पर्याप्त हैं । हे हमारे प्यारे सखा हमसे रूठो मतप्रेम करो । हम तो तुम्हारी दासी हैंतुम्हारे चरणों पर न्योछावर हैं । हम अबलाओं को अपना वह परमसुन्दर सांवला मुखकमल दिखलाओ।।)

प्रणतदेहिनांपापकर्शनं तृणचरानुगं श्रीनिकेतनम् ।
फणिफणार्पितं ते पदांबुजं कृणु कुचेषु नः कृन्धि हृच्छयम् ॥7
(तुम्हारे चरणकमल शरणागत प्राणियों के सारे पापों को नष्ट कर देते हैं। वे समस्त सौन्दर्यमाधुर्यकी खान है और स्वयं लक्ष्मी जी उनकी सेवा करती रहती हैं । तुम उन्हीं चरणों से हमारे बछड़ों के पीछे-पीछे चलते हो और हमारे लिए उन्हें सांप के फणों तक पर रखने में भी तुमने संकोच नहीं किया । हमारा ह्रदय तुम्हारी विरह व्यथा की आग से जल रहा है तुम्हारी मिलन की आकांक्षा हमें सता रही है । तुम अपने वे ही चरण हमारे वक्ष स्थल पर रखकर हमारे ह्रदय की ज्वाला शांत कर दो।।) 

गिरा वल्गुवाक्यया बुधमनोज्ञया पुष्करेक्षण ।
वीर मुह्यतीरधरसीधुनाऽऽप्याययस्व नः ॥8
(हे कमल नयन तुम्हारी वाणी कितनी मधुर है । तुम्हारा एक एक शब्द हमारे लिए अमृत से बढकर मधुर है । बड़े बड़े विद्वान उसमे रम जाते हैं । उसपर अपना सर्वस्व न्योछावर कर देते हैं । तुम्हारी उसी वाणी का रसास्वादन करके तुम्हारी आज्ञाकारिणी दासी गोपियाँ मोहित हो रही हैं । हे दानवीर अब तुम अपना दिव्य अमृत से भी मधुर अधर-रस पिलाकर हमें जीवन-दान दोछका दो।।)

तव कथामृतं तप्तजीवनं कविभिरीडितं कल्मषापहम् ।
श्रवणमङ्गलं श्रीमदाततं भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जनाः ॥9
(हे प्रभो तुम्हारी लीला कथा भी अमृत स्वरूप है । विरह से सताए हुये लोगों के लिए तो वह सर्वस्व जीवन ही है। बड़े बड़े ज्ञानी महात्माओं भक्तकवियों ने उसका गान किया हैवह सारे पाप ताप तो मिटाती ही हैसाथ ही श्रवण मात्र से परम मंगल परम कल्याण का दान भी करती है । वह परम सुन्दरपरम मधुर और बहुत विस्तृत भी है । जो तुम्हारी उस लीलाकथा का गान करते हैंवास्तव में भू-लोक में वे ही सबसे बड़े दाता हैं।।) 

प्रहसितं प्रिय प्रेमवीक्षणं विहरणं च ते ध्यानमङ्गलम् ।
रहसि संविदो या हृदिस्पृशः कुहक नो मनः क्षोभयन्ति हि ॥10
(हे प्यारे एक दिन वह था जब तुम्हारे प्रेम भरी हंसी और चितवन तथा तुम्हारी तरह तरह की क्रीडाओं का ध्यान करके हम आनंद में मग्न हो जाया करती थी । उनका ध्यान भी परम मंगलदायक है उसके बाद तुम मिले । तुमने एकांत में ह्रदय-स्पर्शी ठिठोलियाँ कीप्रेम की बातें कहीं । हे छलिया अब वे सब बातें याद आकर हमारे मन को क्षुब्ध कर देती हैं।।)

चलसि यद्व्रजाच्चारयन्पशून् नलिनसुन्दरं नाथ ते पदम् ।
शिलतृणाङ्कुरैः सीदतीति नः कलिलतां मनः कान्त गच्छति ॥11
(हे हमारे प्यारे स्वामी हे प्रियतम तुम्हारे चरणकमल से भी सुकोमल और सुन्दर हैं । जब तुम गौओं को चराने के लिये व्रज से निकलते हो तब यह सोचकर कि तुम्हारे वे युगल चरण कंकड़तिनकेकुश एंव कांटे चुभ जाने से कष्ट पाते होंगेहमारा मन बेचैन होजाता है । हमें बड़ा दुःख होता है।।)

दिनपरिक्षये नीलकुन्तलैर्वनरुहाननं बिभ्रदावृतम् ।
घनरजस्वलं दर्शयन्मुहुर्मनसि नः स्मरं वीर यच्छसि ॥12
(हे हमारे वीर प्रियतम दिन ढलने पर जब तुम वन से घर लौटते हो तो हम देखतीं हैं की तुम्हारे मुख कमल पर नीली नीली अलकें लटक रही हैं और गौओं के खुर से उड़ उड़कर घनी धुल पड़ी हुई है । तुम अपना वह मनोहारी सौन्दर्य हमें दिखा दिखाकर हमारे ह्रदय में मिलन की आकांक्षा उत्पन्न करते हो।।)

प्रणतकामदं पद्मजार्चितं धरणिमण्डनं ध्येयमापदि ।
चरणपङ्कजं शंतमं च ते रमण नः स्तनेष्वर्पयाधिहन् ॥13
(हे प्रियतम एकमात्र तुम्हीं हमारे सारे दुखों को मिटाने वाले हो । तुम्हारे चरण कमल शरणागत भक्तों की समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाले है । स्वयं लक्ष्मी जी उनकी सेवा करती हैं । और पृथ्वी के तो वे भूषण ही हैं । आपत्ति के समय एकमात्र उन्हीं का चिंतन करना उचित है जिससे सारी आपत्तियां कट जाती हैं । हे कुंजबिहारी तुम अपने उन परम कल्याण स्वरूप चरण हमारे वक्षस्थल पर रखकर हमारे ह्रदय की व्यथा शांत कर दो।।)

सुरतवर्धनं शोकनाशनं स्वरितवेणुना सुष्ठु चुम्बितम् ।
इतररागविस्मारणं नृणां वितर वीर नस्तेऽधरामृतम् ॥14
(हे वीर शिरोमणि तुम्हारा अधरामृत मिलन के सुख को को बढ़ाने वाला है । वह विरहजन्य समस्त शोक संताप को नष्ट कर देता है । यह गाने वाली बांसुरी भलीभांति उसे चूमती रहती है । जिन्होंने उसे एक बार पी लियाउन लोगों को फिर अन्य सारी आसक्तियों का स्मरण भी नहीं होता । अपना वही अधरामृत हमें पिलाओ।।)

अटति यद्भवानह्नि काननं त्रुटिर्युगायते त्वामपश्यताम् ।
कुटिलकुन्तलं श्रीमुखं च ते जड उदीक्षतां पक्ष्मकृद्दृशाम् ॥15
(हे प्यारे दिन के समय जब तुम वन में विहार करने के लिए चले जाते होतब तुम्हें देखे बिना हमारे लिए एक एक क्षण युग के समान हो जाता है और जब तुम संध्या के समय लौटते हो तथा घुंघराली अलकों से युक्त तुम्हारा परम सुन्दर मुखारविंद हम देखती हैंउस समय पलकों का गिरना भी हमारे लिए अत्यंत कष्टकारी हो जाता है और ऐसा जान पड़ता है की इन पलकों को बनाने वाला विधाता मूर्ख है।।)

पतिसुतान्वयभ्रातृबान्धवानतिविलङ्घ्य तेऽन्त्यच्युतागताः ।
गतिविदस्तवोद्गीतमोहिताः कितव योषितः कस्त्यजेन्निशि ॥16
(हे हमारे प्यारे श्याम सुन्दर हम अपने पति-पुत्रभाई -बन्धुऔर कुल परिवार का त्यागकरउनकी इच्छा और आज्ञाओं का उल्लंघन करके तुम्हारे पास आयी हैं । हम तुम्हारी हर चाल को जानती हैंहर संकेत समझती हैं और तुम्हारे मधुर गान से मोहित होकर यहाँ आयी हैं । हे कपटी इस प्रकार रात्रि के समय आयी हुई युवतियों को तुम्हारे सिवा और कौन छोड़ सकता है।।)

रहसि संविदं हृच्छयोदयं प्रहसिताननं प्रेमवीक्षणम् ।
बृहदुरः श्रियो वीक्ष्य धाम ते मुहुरतिस्पृहा मुह्यते मनः ॥17
(हे प्यारे एकांत में तुम मिलन की इच्छा और प्रेम-भाव जगाने वाली बातें किया करते थे । ठिठोली करके हमें छेड़ते थे । तुम प्रेम भरी चितवन से हमारी ओर देखकर मुस्कुरा देते थे और हम तुम्हारा वह विशाल वक्ष:स्थल देखती थीं जिस पर लक्ष्मी जी नित्य निरंतर निवास करती हैं । हे प्रिये तबसे अब तक निरंतर हमारी लालसा बढ़ती ही जा रही है और हमारा मन तुम्हारे प्रति अत्यंत आसक्त होता जा रहा है।।)

व्रजवनौकसां व्यक्तिरङ्ग ते वृजिनहन्त्र्यलं विश्वमङ्गलम् ।
त्यज मनाक् च नस्त्वत्स्पृहात्मनां स्वजनहृद्रुजां यन्निषूदनम् ॥18
(हे प्यारे तुम्हारी यह अभिव्यक्ति व्रज-वनवासियों के सम्पूर्ण दुःख ताप को नष्ट करने वाली और विश्व का पूर्ण मंगल करने के लिए है । हमारा ह्रदय तुम्हारे प्रति लालसा से भर रहा है । कुछ थोड़ी सी ऐसी औषधि प्रदान करोजो तुम्हारे निज जनो के ह्रदय रोग को सर्वथा निर्मूल कर दे।।)

यत्ते सुजातचरणाम्बुरुहं स्तनेष भीताः शनैः प्रिय दधीमहि कर्कशेषु ।
तेनाटवीमटसि तद्व्यथते न किंस्वित् कूर्पादिभिर्भ्रमति धीर्भवदायुषां नः ॥19
(हे श्रीकृष्ण तुम्हारे चरणकमल से भी कोमल हैं । उन्हें हम अपने कठोर स्तनों पर भी डरते डरते रखती हैं कि कहीं उन्हें चोट न लग जाय । उन्हीं चरणों से तुम रात्रि के समय घोर जंगल में छिपे-छिपे भटक रहे हो । क्या कंकड़पत्थरकाँटे आदि की चोट लगने से उनमे पीड़ा नहीं होती हमें तो इसकी कल्पना मात्र से ही चक्कर आ रहा है । हम अचेत होती जा रही हैं । हे प्यारे श्यामसुन्दर हे प्राणनाथ हमारा जीवन तुम्हारे लिए हैहम तुम्हारे लिए जी रही हैंहम सिर्फ तुम्हारी हैं।।)



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Thursday, February 14, 2013

ऋतु-राज बसंत


बसंत ऋतु या बसंत पंचमी के बारे में कुछ भी लिखने से पूर्व मई आप सब भक्त-मित्रों से क्षमा माँगना चाहता हूँ। इस बार एक काफी लम्बे अंतराल के बाद आप सबसे मिल रहा हूँ। पहले तो मै स्वयं अस्वस्थ्ताओं का शिकार हो गया और उसके पश्चात् मेरे बहुत करीबी रिश्तेदार मुझे हमेशा के लिए छोड़कर प्रभु श्री बांके बिहारी के चरणों में लीन हो गए। इसलिए मई कोई लेख नहीं लिख पाया। पर अब बसंत ऋतु भी दस्तक दे चुकी है, और उसी विषय पर मेरा यह लेख आधारित है। आशा है आपको पसंद आएगा। 

आप सब जानते हैं कि हमारे देश में 6 ऋतु होती हैं, और उनमे से प्रमुख है बसंत ऋतु जो माघ और फाल्गुन मास में मनाई जाती है। भगवान् श्री कृष्ण ने गीता में कहा है कि मई ऋतुओं में बसंत हूँ, इसलिए इस ऋतु को ऋतु राज भी कहा जाता है। यह खुशहाली और हरीतिमा का प्रतीक है और मुख्या रूप से दो प्रमुख पर्व इस समय मनाये जाते हैं। सर्वप्रथम बसंत पंचमी जिस दिन विद्या संगीत की देवी माँ शारदा की उपासना की जाती है और दूसरा पर्व होली होता है जिसे पूरे भारत में बड़े रंगीन तरीके से मनाया जाता है। यदि बसंत पंचमी की बात करें तो माघ मास, शुक्ल पक्ष, पंचमी को बसंत पंचमी कहते हैं। इस दिन पीत रंग का विशेष महत्त्व होता है क्योंकि पंजाब के खेतों में पीली सरसों लहलहा रही होती है और इस दिन से उस फसल की कटाई शुरू हो जाती है। संगीत और विद्या प्रेमी लोग इसे माँ शारदा की भक्ति का दिन मानते हैं और पीत वस्त्र धारण करने की भी प्रथा बहुत प्रचिलित है। मैंने भी माँ के आशीर्वाद से अपनी कलम से उनके लिए कुछ लिखा है, आप सबके लिए प्रस्तुत है:

वीणा है शोभायमान जिन कर कमलों में  
सुंदर कमल का क्या आसन सजाया है 
कोटि रावियों के जैसा तेज मुख कमल पे 
कमल से नैनो में क्या प्यार समाया है 
आली मुस्कान है कमल से अधरों पे 
चरण कमल में ये शीश झुकाया है 
विद्या-संगीत की देवी श्वेत वर्णी हैं 
कमलों से कोमल शारदा महामाया है 

करते हैं ध्यान सदा आपका ही ज्ञानी जन, 
मुनियों ने आपके गुणों का गान गाय है 
सभी देवी देवता नवाते सर आपको 
राम चन्द्र का भी काम अपने बनाया है 
सारे राग सारे स्वर रहते आपके अधीन 
पर पार आपका किसी ने भी न पाया है 
महामाया इस ही लिए तो तुम्हे कहते हैं 
जग से निराली महा शारदा की माया है 

अब यदि बसंत ऋतु की बात करे तो यह पर्व हमारे पंजाब के भाई सबसे ज्यादा उल्लास के साथ मानते हैं। पंजाब में एक गाँव है जिसका नाम है फिरोजपुर। इस गाँव का बसंत पंचमी देश विदेश में प्रचिलित है। यहाँ इसे पतंग उड़ा  कर मनाया जाता है और विदेशों से भी अनेक सैलानी यहाँ केवल यह पतंग उत्सव देखने के लिए आते हैं। यह पर्व सर्द मौसम के विश्राम का प्रतीक होता है और इस दिन पृथ्वी, सूर्य नारायण और माँ गंगा की भी पूजा का विधान होता है। केवल भारत में नहीं, हमारे पडोसी मुल्क पकिस्तान में भी यह पर्व मनाया जाता है और वहां इसे उर्दू में जश्न-इ-बहारां कहा जाता है। मुख्य र्रोप से यह त्यौहार पाकिस्तान के लाहौर में मनाया जाता है परन्तु अब इसकी ख्याति कराची, इस्लामाबाद, गुजरांवाला इत्यादि अन्य क्षेत्रों में भी पहुँच रही है। पकिस्तान के मुस्लिम भाइयों में भी बसंत के इस त्यौहार को पहुंचाने का श्रेय सूफी संतो को जाता है। सूफी कवियों ने अपनी रचनाओ में इस पर्व का इतना उल्लेख किया है कि पाकिस्तान भी इनसे प्रभावित हुए बिना न रह सका। निजामुद्दीन औलिया, ख्वाजा भक्तियार काकी और यहाँ तक की आमिर खुसरो साहब ने भी इस बसंत को बेहद रूहानी तरीके से अपनी कलम से चित्रित किया। खुसरो साहब के बसंत से कुछ पंकितयां याद आई हैं:

आज बसंत मनाले , सुहागन, आज बसंत मनाले  
अंजन-मंजन कर पिया मोरी, लम्बे नेहर लगाले 

तू क्या सोवे नींद की मासी, सो जागे तेरे भाग 
सुहागन, आज बसंत मनाले

ऊंची नार के ऊंचे चितवन,  एसो दियो है बनाये 
शाह आमिर तुहे देखन को, नैनो से नैन मिलाये 
सुहागन, आज बसंत मानले 

परन्तु मुझे एक बात पर बेहद दुःख होता है। आप सब जानते है आज लोग प्रेम चतुर्दशी भी मन रहे हैं या यूँ कहूं की प्रेम चतुर्दशी ही मन रहे हैं। किसी को ख्याल नहीं है कि हमारे धर्म का भी एक विशेष पर्व है जिसका हमें सम्मान करना चाहिए। मई उस सभ्यता का भी विरोध नहीं करता, मै विरोध करता हूँ इस बात का कि लोग हिन्द को भूल गए। मेरी नज़र में तो ये दुस्साहस ही है कि उस असीमित प्रेम को एक दिन के बंधन में बाँध दिया लोगों ने। और आज सब अपनी लाज शर्म त्याग के प्रेम की गरिमा को कलंकित कर रहे होंगे उसमे किसी को दोष नहीं दिया जाएगा। फिर भी, मुझे यकीन है जो लोग इस लेख को पढ़ रहे हैं, उन्हें तो अपनी संस्कृति और उसकी मर्यादा का पूरा ध्यान होगा और उसे बचने में वो पूरा सहयोग करेंगे। आप सबको बसंत पंचमी की बहुत बहुत शुभकमाना। 

Tuesday, January 8, 2013

शरीर और आत्मा

सभी भक्तों को मेरो ओर से प्रेममयी और भक्तिमयी "जय श्री राधे"। आज तक मैंने जब भी आपसे अपने लेख के माध्यम से बात की तो भक्ति के विषय में ही चर्चा हुई है। परन्तु आज मई कुछ ज्ञान-वार्ता करने का प्रयास कर रहा हूँ। अभी कुछ दिन पूर्व मेरे एक मित्र ने मुझसे यह प्रश्न किया कि आत्मा या शरीर में बड़ा कौन है? यदि ध्यान दिया जाए तो यह प्रश्न ही पूरे तत्व-ज्ञान का सार है। और इस प्रश्न का उत्तर भी केवल वही दे सकता है जो तत्व के ज्ञान को भलीभांति जानता हो। अतः मै स्वयं इस प्रश्न के उत्तर देने में न तो सक्षम हूँ और न ही मुझे यह अधिकार है। परन्तु फिर भी जो कुछ थोडा अपने पूज्य गुरुदेव से सीखा है, उसे इस लेख में उतारने का प्रयास कर रहा हूँ।


सबसे पहले हमें यह जानना चाहिए कि तत्व-ज्ञान सुनने का अधिकारी कौन है। इस सन्दर्भ में श्री वाल्मीकि रामायण में एक अद्भुत प्रसंग आया है। ब्रह्म-ऋषि याज्ञवल्क्य रोज़ाना अपने आश्रम पे तत्व-ज्ञान पर प्रवचन किया करते थे। उसमे मुनि के शिष्यों के साथ साथ महाराज जनक भी आया करते थे। परन्तु मुनि प्रवचन तब तक प्रारंभ नहीं करते, जब तक राजा अपना आसन ग्रहण न कर लें। यह बात बाकि शिष्यों को अच्छी नहीं लगती। उनके मन में यह प्रश्न उठता कि ऋषि की नज़रों में तो समानता होनी चाहिए, फिर हमारे गुरूजी राजा को अधिक भाव क्यों देते हैं। याज्ञवल्क्य जी ने उनके इस प्रश्न को जान लिया और अगले ही दिन एक लीला की। जब वेह प्रवचन कर रहे थे तो एक लड़का भागता हुआ आया, कि मिथिला पूरी में आग लगी है और आश्रम की तरफ बढ़ रही है। यह सुनते ही सारे शिष्य इधर उधर अपने आप को सुरक्षित करने के लिए दौड़ने लगे पर राजा जनक वहीँ बैठे रहे। ऋषि ने उन्हें भी सुरक्षित स्थान पे जाने को कहा, पर उन्होंने कह दिया कि जब एक दिन इस शरीर ने ही जल के ख़ाक होना है तो इसे क्यों सुरक्षित करें। आत्मा अमर है, इसलिए कोई चिंता नहीं। वेह अग्नि को सच्ची नहीं थी पर महाराज जनक तत्व-ज्ञान के सच्चे अधिकारी ज़रूर थे। बन्धुओ, जिस ह्रदय में एस भाव आजाये, तो समझिये उसने तत्व को समझ लिया। 

मै पुनः यह बात दोहरा रहा हूँ कि हम न तो इस ज्ञान को कहने के अधिकारी हैं और न ही सुनने के, फिर भी यह प्रभु के चरणों का प्रेम ही है जो हम इसे लिख-पढ़ रहे हैं। यदि बाह्य दृष्टि से देखा जाए तो शरीर हर प्रकार से आत्मा से बड़ा है क्योंकि श्रीमद भगवद्गीता में भगवान् ने अर्जुन को कहा है कि एक मानव शरीर पर जो बाल होता है, उस बाल की नोक के यदि सौ हिस्से किये जाएँ, तो वह आत्मा के कण के बराबर होंगे। परन्तु सूक्ष्म दृष्टि से यदि देखें तो वही आत्मा रुपी ज्योत सबके ह्रदय में प्रकाशमान है और सबके जीवन का मूल कारण है। यदि शरीर के सारे अंग बिलकुल ठीक हों पर केवल आत्मा शरीर से अलग हो जाए, तो शरीर मृत है। उसका कोई मोल नहीं है। केवल आत्मा के न होने से शरीर इतना अपवित्र हो जाता है कि कोई उसे छु ले तो नहाना पड़ता है। श्मशान घाट पे जाके उसे जला दिया जाता है। ये आत्मा की ही ज्योत है जिसके बल पे यह दिल धड़कता है, दिमाग चलता है, सांस गतिशील होती है। आत्मा नहीं तो कुछ नहीं। 

परन्तु इतना होने पर भी शरीर की अहमियत को ठुकराया नहीं जा सकता। जैसे एक अनंत समुद्र को पार करने के लिए नौका की आवश्यकता होती है उसी प्रकार इस भवसागर को पार करने के लिए भी शरीर रुपी नाव आवश्यक है। यह शरीर ही हमें परमात्मा श्री बांके बिहारी के दर्शन करवाने में समर्थ है। बिना शरीर के हम भजन नहीं कर सकते। यदि कोई वक्त आत्मा रूप में कथा सुनाने आये, तो सच बोलियेगा आप में से कौन जायेगा। और सुनने के लिए यदि आत्मा बैठी हो तो क्या कोई सुनाने आएगा? राम कथा के प्रवीण वाचक, पूज्यपाद संत श्री मोरारी बापू से मैंने सुना है, राम चरित मानस का कथन है, बिना शरीर के कोई भक्त नहीं बन सकता। और केवल भक्तों को भगवान् से मिलने के लिए शरीर नहीं चाहिए, बल्कि भगवान् का भी यदि अपने भक्तों से मिलने का मन करे तो उन्हें भी शरीर धारण करके साकार रूप लेना ही पड़ता है। हर ग्रन्थ में जहाँ भी भगवान् के अवतार के कारन बताये जाते हैं, मुख्य कारण भक्त ही होते हैं। जब भगवान् का अपना नाम लेने का मन हुआ, तब भी उन्हें चैतन्य महाप्रभु का शरीर ही लेना पड़ा। 

अब आप कहेंगे कि मैंने तो शरीर और आत्मा दोनों को ही श्रेष्ट प्रमाणित कर दिया, सवाल का उत्तर कहाँ गया। तो मै बताना चाहूँगा कि ये चर्चा अंत-हीन है। इस विषय पर अनंत समय तक बोल सुना जा सकता है, पर तत्व-ज्ञान का सार बस इतना है कि आत्मा और शरीर दोनों ही महत्वपूर्ण है। और तत्व-ज्ञान हमें आत्मा और शरीर का बोध करता भी नहीं है, इस ज्ञान में यह चर्चा नहीं की गयी कि आत्मा और शरीर में कौन बड़ा है। तत्व ज्ञान कहता है कि बेशक शरीर महत्वपूर्ण है, पर ये नश्वर है। इसलिए इसके प्रति आसक्ति मत रखो, यही खुश रहने का एक मात्र सूत्र है। और बिना इस बोध के भगवान् का मिल पाना असंभव है। 

यहाँ एक प्रश्न और आता है कि यदि बिना तत्व ज्ञान के परमात्म तत्व की प्राप्ति असंभव है, तो गोपियों को कृष्णा कैसे मिले। उन्हें तो कोई ज्ञान नहीं था और जब उद्धव उन्हें ज्ञान देने आये तो उन्होंने उसे स्वीकार भी नहीं किया। तो मई आपको बता दूं, गोपियों को तत्व ज्ञान की आवश्यकता ही नहीं है। उन्हें तो अपने शरीर का होश ही नहीं था, उसके प्रति आसक्ति कहाँ से आती। फिर भी गोपियों के इस विषय पर किसी और लेख में विस्तृत रूप से बात करूँगा। यहाँ तो केवल मैंने एक छोटा सा दुस्साहस किया है तत्व-ज्ञान पर बात करने का। यदि आप इसके बारे में पढना चाहे तो यह ज्ञान सूर्य देव विवस्वान को भगवान् ने दिया था, भगवान् ने गीता में अर्जुन को दिया है और भगवत महापुराण के ग्यारहवे स्कन्ध में भी भगवान् ने उद्धव से इस ज्ञान पर वार्तालाप किया है। 

मई जानता हूँ, मेरे विचारों से आप में से बहुत लोग सहमत नहीं होंगे, यदि आप अपने विचार मुझे बताये तो मई आपका बहुत आभारी रहूँगा। और मेरी आपसे हाथ जोड़ के प्रार्थना है कृपया अपनी प्रतिक्रिया ज़रूर व्यक्त करें और यदि मेरी किसी बात से किसी की भावनाओ को ठेस पहुंची हो तो मई माफ़ी मांगता हूँ। 

धन्यवाद !
श्री राधे !

Sunday, December 23, 2012

Upcoming Programmes

श्रधेय आचार्य गोस्वामी श्री मृदुल कृष्ण जी महाराज 

विश्व के इतिहास में पहली बार 51 हज़ार कलशों द्वारा विशाल शोभा यात्रा और साथ ही भागवत रत्न पूज्य बड़े गुरुदेव द्वारा श्रीमद भागवत कथा (ज्ञान यज्ञ) का विशाल आयोजन। सामान्यतः हर शोभा यात्रा में 108 कलश होते हैं और अधिकतम तौर पर 1008 होते हैं परन्तु ये पहली बार 51 हज़ार कलश यात्रा में शामिल होंगे। 

दिनांक: 25 दिसम्बर से 31 दिसम्बर 
समय: दोपहर 01:00 बजे से 05:00 बजे पर्यन्त 
स्थान: भोपाल रोड, देवास, मध्य प्रदेश 

आगामी कार्यक्रम 

03 जनवरी से 09 जनवरी : धनबाद, झारखण्ड 

10 जनवरी से 16 जनवरी : पीतमपुरा, दिल्ली 

19 जनवरी से 25 जनवरी : गोवर्धन, मथुरा 

26 जनवरी से 01 फरवरी : आदर्श नगर, दिल्ली 


श्रधेय आचार्य श्री गौरव कृष्ण गोस्वामी जी महाराज 


पूज्य गुरुदेव को राधारानी की कृपा से एस सौभाग्य प्राप्त है कि वो एक वर्ष में अनेक जगह भागवत की कथा को कहते हैं और भक्तों के बीच में राधा नाम की मस्ती लुटाते हैं। अनेक जगह वो पहली बार जाते है और कोई जगह इसी होती है जहाँ वो काफी समय से निरंतर आ रहे हैं। बन्धुओ दिल्ली स्थित कमला नगर की भूमि इतनी पवित्र है की यहाँ पिछले 18 वर्षों से निरंतर और नियमित रूप से गुरूजी कथा कर रहे हैं और मुझे यह कहते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि इस बार उन्नीसवी कथा का भी विशाल आयोजन यहाँ संपन्न होगा। यह मेरा सौभाग्य है कि कमला नगर मेरा जन्म स्थान और निवास स्थान भी है। 

दिनांक: 25 दिसम्बर से 31 दिसम्बर, 2012
समय: दोपहर 03:00 बजे से 07:00 बजे पर्यन्त 
स्थान: श्री मधुबन वाटिका, बिरला स्कूल, कमला नगर, दिल्ली 

इस वर्ष इस कथा में मानव सेवा हेतु 27 दिसम्बर, 2012 को रक्त दान शिविर का भी आयोजन किया गया है।

आगामी कार्यक्रम 

03 जनवरी से 10 जनवरी : इस्कॉन हाउस, कोल्कता 

12 जनवरी से 18 जनवरी : लेक टाउन, कोल्कता 

31 जनवरी से 06 फरवरी : शालीमार बाग, दिल्ली   

Saturday, December 8, 2012

लील्ये की लीला

आप सब भक्तों को सादर प्रणाम करके इस लेख का प्रारंभ करने जा रहा हूँ और आज आपको एक ऐसी अद्भुत लीला का वर्णन करूँगा जिसे पढ़कर आपके ह्रदय में रोमांच और प्रेम प्रफुल्लित हो जायेगा। आज के इस मॉडर्न ज़माने में एक चीज़ जो बहुत प्रचलित है वह है अपने शरीर के अंग पर चित्रकारी जिसे हम सब टैटू के नाम से जानते है। वास्तविकता में यह एक कला है जिसका उपयोग आज बहुत ही गलत ढंग से किया जा रहा है। पहले हमारी माताएं बहने अपने पति का नाम अपने हाथों पर गुद्वाती थीं। इसके दो प्रमुख कारण थे, सर्व्प्रथान तो इससे हमेशा अपने प्राण-प्रियतम का स्मरण बना रहता है और जैसा पहले स्त्रियाँ अपने पति का नाम नहीं लिया करी थीं, तो यदि कहीं उनका नाम बोलना पड़े तो वे अपना हाथ दिखा देती थीं। पर आज तो लोग इसे अपने शरीर का श्रृंगार समझते हैं। ऐसी ऐसी तसवीरें अपने हाथों पर बनवा लेते हैं कि क्या कहूँ। मैंने एक बार देखा एक भले मानुष ने कंकाल की खोपड़ी अपनी बाजुओं पर बनवा राखी थी और नीचे लिखा था "खतरा", वो खुद ही अपनी हकीकत ज़माने को बता रहा था। पर नहीं, यह कला भारत की धरोहर है जिसे आज पाश्चात्य संस्कृति कुछ अलग ही रूप देकर दुनिया को सिखा रही है। लेख पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हुए मै आप सबको बता देना चाहता हूँ कि प्राचीन समय में इस टैटू को "लील्या" कहा जाता था। इसी लील्ये से जुडी हमारे लीलाधर वंशीधर आनंदकंद वृन्दावन बिहारी श्री कृष्ण की एक अत्यंत मधुर लीला है जिसका वर्णन अभी करने जा रहा हूँ। 

एक समय की बात है, जब किशोरी जी को यह पता चला कि कृष्ण पूरे गोकुल में माखन चोर कहलाता है तो उन्हें बहुत बुरा लगा उन्होंने कृष्ण को चोरी छोड़ देने का बहुत आग्रह किया पर जब ठाकुर अपनी माँ की नहीं सुनते तो अपनी प्रियतमा की कहा से सुनते। उन्होंने माखन चोरी की अपनी लीला को उसी प्रकार जारी रखा। एक दिन राधा रानी ठाकुर को सबक सिखाने के लिए उनसे रूठ कर बैठ गयी। अनेक दिन बीत गए पर वो कृष्ण से मिलने नहीं आई। जब कृष्णा उन्हें मानाने गया तो वहां भी उन्होंने बात करने से इनकार कर दिया। तो अपनी राधा को मानाने के लिए इस लीलाधर को एक लीला सूझी। ब्रज में लील्या गोदने वाली स्त्री को लालिहारण कहा जाता है। तो कृष्ण घूंघट ओढ़ कर एक लालिहारण का भेष बनाकर बरसाने की गलियों में घूमने लगे। जब वो बरसाने की ऊंची अटरिया के नीचे आये तो आवाज़ देने लगे:

मै दूर गाँव से आई हूँ, देख तुम्हारी ऊंची अटारी 
दीदार की मई प्यासी हूँ मुझे दर्शन दो वृषभानु दुलारी 
हाथ जोड़ विनती करूँ, अर्ज ये मान लो हमारी 
आपकी गलिन में गुहार करूँ, लील्या गुदवा लो प्यारी 

जब किशोरी जी ने यह करूँ पुकार सुनी तो तुरंत विशाखा सखी को भेजा और उस लालिहारण को बुलाने के लिए कहा। घूंघट में अपने मुह को छिपाते हुए कृष्ण किशोरी जी के सामने पहुंचे और उनका हाथ पकड़ कर बोले कि कहो सुकुमारी तुम्हारे हाथ पे किसका नाम लिखूं। तो किशोरी जी ने उत्तर दिया कि केवल हाथ पर नहीं मुझे तो पूरे श्री अंग पर लील्या गुदवाना है और क्या लिखवाना है, किशोरी जी बता रही हैं:

माथे पे मदन मोहन, पलकों पे पीताम्बर धारी 
नासिका पे नटवर, कपोलों पे कृष्ण मुरारी 
अधरों पे अच्युत, गर्दन पे गोवर्धन धारी 
कानो में केशव और भृकुटी पे भुजा चार धारी 

छाती पे चालिया, और कमर पे कन्हैया 
जंघाओं पे जनार्दन, उदर पे ऊखल बंधैया 
गुदाओं पर ग्वाल, नाभि पे नाग नथैया 
बाहों पे लिख बनवारी, हथेली पे हलधर के भैया 

नखों पे लिख नारायण, पैरों पे जग पालनहारी 
चरणों में चोर माखन का, मन में मोर मुकुट धारी 
नैनो में तू गोद दे, नंदनंदन की सूरत प्यारी 
और रोम रोम पे मेरे लिखदे, रसिया रणछोर वो रास बिहारी 


जब ठाकुर जी ने सुना कि राधा अपने रोम रोम पे मेरा नाम लिखवाना चाहती है, तो ख़ुशी से बौरा गए प्रभु। उन्हें अपनी सुध न रही, वो भूल गए कि वो एक लालिहारण के वेश में बरसाने के महल में राधा के सामने ही बैठे हैं। वो खड़े होकर जोर जोर से नाचने लगे और उछलने लगे। उनके इस व्यवहार से किशोरी जी को बड़ा आश्चर्य हुआ की इस लालिहारण को क्या हो गया। और तभी उनका घूंघट गिर गया और ललिता सखी ने उनकी सांवरी सूरत का दर्शन हो गया और वो जोर से बोल उठी कि ये तो वही बांके बिहारी ही है। अपने प्रेम के इज़हार पर किशोरी जी बहुत लज्जित हो गयी और अब उनके पास कन्हैया को क्षमा करने के आलावा कोई रास्ता न था। उधर ठाकुर भी किशोरी का अपने प्रति अपार प्रेम जानकार गद्गद हो गए। 

तो ये थी उस पवित्र लील्ये की पवन लीला। हम आशा करते हैं कि आपको इस लीला का विवरण पढने में आनंद आया होगा और आपकी प्रतिक्रियाओं का हार्दिक स्वागत है। एक और सूचना मई सब भक्तों को देना चाहूँगा कि इस वर्ष "बिहार पंचमी" का पवन पर्व 17 दिसम्बर को वृन्दावन में बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जायेगा। ठाकुर श्री बांके बिहारी जी के प्रादुर्भाव दिवस के उपलक्ष्य में स्वामी जी की विशाल सवारी निधिवन से मंदिर पधारेगी। इस बिहार पंचमी को विवाह पंचमी भी कहा जाता है क्योंकि इसी तिथि को त्रेता में भगवान् राम का माँ जानकी से विवाह हुआ था। 

आप सबको बिहार पंचमी की बहुत बहुत बधाई।