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Thursday, May 31, 2012

निर्जला एकादसी

जैसा कि हमारे शास्त्रों में वर्णित है कि एकादसी तिथि सबसे पवित्र तिथि है और यह दिन हमारे ठाकुर जी को विशेष रूप से प्रिय है. संतजन कहते हैं कि जो व्यक्ति साल में चौबीस एकादसी का व्रत करता है उसे कोई दूसरा भजन करने कि आवश्यकता नहीं होती. उसकी सात पीढियां अपने-आप पवित्र हो जाति हैं. हमारे पूज्य गुरुदेव तो कहते हैं कि जब हम जल्दी जल्दी "एकादसी एकादसी एकादसी..." ऐसा बोलें, तो हमारे मुख से ध्वनि निकलती है "एक आदत सी" आर्थार्थ हम सब भक्तों को एकादसी के व्रत की तो आदत होनी चाहिए. एकादसी के व्रत से बढ़कर इस दुनिया में कोई जप, तप और साधन नहीं है उस तक पहुँचने का.

अनेक व्यक्तियों के लिए प्रत्येक एकादसी का व्रत रखना संभव नहीं होता, परन्तु यदि हम एक निर्जला एकादसी का व्रत रख लें, तो हमें चौबीस एकादसी व्रत करने का ही फल मिलता है. ज्येष्ट मास वर्ष का सबसे अधिक गर्म महीना होता है. इसी ज्येष्ट मास के शुक्ल पक्ष कि एकादसी को निर्जला एकादसी कहते हैं. महाभारत में कथा मिलती है कि एक बार महाराज भीमसेन ने पांडवो से पुछा था कि हे पांडव! तुम तो एकादसी का व्रत रखते हो, इसलिए तुम कृष्ण जी को इतने प्यारे हो परन्तु मै भूक बर्दाश्त नहीं कर सकता, यदि कोई ऐसा उपाय है जिससे मै बिना व्रत किये द्वारकाधीश का आह्वाहन कर सकूँ तो मुझे बताओ. उस समय पांडवों ने कहा था कि आप ज्येष्ट शुक्ल एकादसी का व्रत निराहार करिये, तो आपको वही फल मिलेगा जो हमें प्राप्त होता है. इसलिए हमें निर्जला एकादसी को भीमसेनी एकादसी भी कहते हैं.

इस व्रत को तो केवल इतना ही विधान है कि हमें सूर्योदय से सूर्यास्त तक बिना आहार और बिना जल का सेवन किये रहना चाहिए. यदि ऐसा संभव न हो तो एक बार जलपान किया जा सकता है. परन्तु व्रत के बीच में कुछ भी खाने-पीने से आध्यात्मिकता को हानि पहुँचती है. फ़िर हमें द्वादशी के दिन सुबह सूर्योदय से पहले स्नान करना चाहिए और यथायोग्य ब्राह्मणों को दान देना चाहिए. यदि व्रत करना संभव न हो तो भक्त केवल प्रभु के दर्शन भी कर सकते है. क्यूंकि ये व्रत तो उन तक पहुँचने का एक जरिया है. जिसपर प्रभु कृपा करे तो बिना व्रत के, केवल दर्शनों से ही निजपद दे देते हैं. 



आप सबको हमारे परिवार की ओर से निर्जला एकादसी की हार्दिक शुभकामना और बधाई 

Sunday, May 27, 2012

धर्म कि परिभाषा

इस दुनिया में और विशेष रूप से हमारे भारत में धर्म को लेकर हमेशा विवाद चलता रहता है. अलग अलग धर्मो के अनुयायी किसी न किसी बात पे लड़ते रहते हैं. ऐसा केवल इसलिए होता है क्यूंकि हम मंजिल में नहीं, रास्तों में रूचि रखते हैं. हमारा ध्यान केवल उस परमात्मा पर केंद्रित नहीं होता अपितु उस मार्ग पर केंद्रित होता है जो उस तक ले जा रहा है. यदि एक सभा चल रही हो जहा एक आसन पर गौरांग महाप्रभु जी बैठ जाये, एक आसन पर पैगम्बर आया जाये, एक आसन पर गुरु नानक देव जी आ जाये और एक आसन पर ईसा विराजमान हो जाये तो उस सभा में कभी लड़ाई नहीं होगी क्यूंकि ये सारे महापुरुष उस परमात्मा तक पहुच चुके हैं, ये उन रास्तो से गुजार चुके हैं औरर इन्हें पता है 

 पहुंचा कोई काबे से, कोई दहर से पहुंचा 
पर जो भी तुझ तक पहुंचा, तेरी महर से पहुंचा 

बंधुओ, हमें उस इश्वर की बात करनी चाहिए, यही धर्म है. धर्म हमें उस तक पहुँचने के विभिन्न रास्ते दिखाता है, यह हमारी मर्ज़ी है हमें जो रास्ता अच्छा लगे हम उसे चुन ले, परन्तु धर्म हमें उन रास्तों को लेकर लड़ना नहीं सिखाता. हम तो चाहे एक ही नाम के उपासक हों, चाहे सबने एक सी वेशभूषा पहन रखी हो, परन्तु फ़िर भी हमारे विचारों में इतनी भिन्नता होती है कि हम छोटी छोटी बातों पर मतभेद हो जाता है. धर्म कि सही परिभाषा क्या है, इसको समझाने के लिए पूज्य गुरुदेव ने कथा में एक कहानी सुनाई थी, उस कहानी को आपको बताने का प्रयास कर रहा हूँ, आशा है आप लोग समझोगे. 

एक बार जापान में एक फ़कीर अपने आश्रम में रहा करते थे. उन फ़कीर के हजारों चेले थे जो उनके आश्रम में उनकी सेवा किया करते थे. एक बार उनके आश्रम में उनके पास एक लड़का आया और यह विनती करने लगा कि हे गुरुदेव मुझे भी अपनी सेवा में रख लीजिए. तो उस फ़कीर ने कहा कि वैसे तो आश्रम में कोई काम नहीं है, पर तू यदि सेवा करना चाहता है तो जाके रसोई में चावल साफ़ करने का काम अपने सिर ले ले और जब मै तेरी सेवा से प्रसन्न हो जाऊंगा तो तुझे कोई नया काम दूंगा. वह लड़का रसोई में जाके चावल साफ़ करने लगा. उसका स्वभाव इतना अच्छा था कि कुछ ही दिनों में सब लोग उसके दोस्त बन गए. धीरे धीरे वह लड़का उस काम में इतना तल्लीन हो गया कि अब उसे संसार के और किसी काम में मज़ा ही नहीं आता था. कुछ समय बीता तो वह लड़का चावल साफ़ करते करते इस कदर खो गया कि उसे अपनी देह सुध भी न रही. वह दिन भर केवल चावल साफ़ करता रहता, न किसी से बोलता, न किसी से हँसता और न ही उस रसोई से बाहर निकलता. अब आश्रम के सरे लोगों ने उसे पागल समझकर उससे बोलना छोड़ दिया. कोई उसके पास भी न जाता और वह लड़का भी अपनी इस दशा में बहुत खुश था क्यूंकि उसे तो कुछ होश ही नहीं था. आश्रम में सत्संग-कीर्तन होता, वह उनमे भी नहीं जाता था. 

एक दिन फ़कीर बीमार पद गए और अपनी योग साधना से उन्होंने पता लगा लिया कि उनकी मृत्यु निकट है. उन्होंने सोचा कि मै अपने सामने ही इस आश्रम को एक नया वारिस दे जाऊंगा जिससे मेरे मरणोपरांत यहाँ कोई अव्यवस्था न हो. तो उन्होंने यह एलान कर दिया कि जो भी चेला धर्म की सही परिभाषा बताएगा, उसे आश्रम का मालिक बना दिया जायेगा. इतना सुनते ही सारे लड़के अपनी अपनी परिभाषा खोजने में लग गए परन्तु किसी की हिम्मत न होती कि गुरूजी को जाके अपनी परिभाषा सुनाये. बड़ी मुश्किल से एक लड़के ने हिम्मत की और अपने दोस्तों से कहा कि मै अपनी परिभषा गुरूजी के कमरे की सामने वाली दीवार पे लिख जाऊंगा और आश्रम छोड़ दूंगा. अगर गुरूजी को पसंद आये तो मुझे सामने वाली पहाड़ी से बुला लेना अन्यथा बोल देना कि हमें नहीं पता वो कहाँ है. उसने लड़के ने लिखा 

मन एक दर्पण है, जिसपे कर्मो की धूल जमी है
उस धूल को हटा दो, परमात्मा मिल जायेगा

जब सुबह फ़कीर ने ये पढ़ा तो क्रोध से आग बबूला हो गए. सबको डांटने लगे कि किस पागल ने यह लिखा है. तो सबने मना कर दिया कि हमें नहीं पता. देखा जाये तो बंधुओ उस लड़के ने कुछ गलत नहीं लिखा, पर फ़िर भी फ़कीर को समझ नहीं आया. वो लड़का जो चावल साफ़ करता था, वो इन सब बातों से बेखबर था. एक दिन इस परिभाषा की बात करते हुए कुछ लड़के रसोई के आगे से निकले. जब उसने इस बात को सुना तो जोर जोर से हँसने लगा. सब हैरान हो गए कि ये तो कभी किसी से नहीं बोलता था आज कैसे हँस रहा है. जब उससे पुछा तो वह बोला कि ये परिभाषा ही ऐसी है हंसी आ गयी. और उन सब से कहा कि तुम जाओ और उस दीवार पे लिख दो

मन बाकी ही नहीं बचा, तो धूल कहा से जमे
और परमात्मा कब खोया था जो मिल जायेगा

सबने ऐसा ही लिखा और जब सुबह उठ कर फ़कीर ने यह पढ़ा तो खुशी से रोने लगे. जब सब लडको ने देखा कि गुरूजी को परिभाषा पसंद आ गयी तो सब उनके पास गए. गुरूजी ने कहा बुलाओ उस लड़के को जो चावल साफ़ करता है, ये बात उसके सिवा कोई लिख नहीं सकता. सब लड़के हैरान हो गए कि गुरूजी को कैसे पता चला. तो फ़कीर ने बताया कि तुम लोग तो सत्संग कीर्तन करते थे, फ़िर भी तुमने धर्म का सही मतलब नहीं समझा और इस लड़के ने केवल चावल साफ़ करते करते धर्म को इतनी गहराई से जान लिया क्यूंकि ये जो भी कर्म करता था पूरी निष्ठां से करता था. चावल साफ़ करना ही इसका धर्म था औ वही इसका कर्म भी था. यह बात सुनकर सरे लड़के लज्जित हो गए और इस लड़के वो उस आश्रम का प्रभुख घोषित कर दिया गया. 

कहने का अभिप्राय यही है कि धर्म केवल हमारे ह्रदय कि उपासना है और अध्यात्म में वासना ही उपासना का रूप धारण करती है. मै आशा करता हूँ कि आप सब धर्म को समझेंगे और समाज को सुधरने का प्रयत्न करेंगे. 

किशोरी जी आप सब पर कृपा करें 

Sunday, May 6, 2012

महिमा श्रीधाम वृन्दावन की

मनमीन मुनियों के जहाँ, वह वंशी-मयी रसधार यही है
शुकदेव से ज्ञानी को तारने की, तिरछे दृग की तलवार यही है
ब्रजवासियों का ये स्नेह सरता, और गोपियों का दिलदार यही है
दिल लूट लिया जिसने हमरा, वह सांवरा नन्द कुमार यही है

हमारे ब्रज के एक रसिक संत हैं जिनका नाम है प्रभुदानंद सरस्वती जी. इन संत को श्री धाम वृन्दावन से इतना प्यार था कि इन्होने वृन्दावन कि महिमा में एक पूरा ग्रन्थ ही लिख दिया, "वृन्दावन महिमम्रित". इस ग्रन्थ में १०० शतक हैं और एक शतक में १०० श्लोक हैं. अर्थार्थ सरस्वती जी ने पूरे १०,००० श्लोक लिख दिए ब्रज कि महिमा के और फ़िर भी अपने ग्रन्थ के अंत में उन्होंने कहा है कि वृन्दावन कि महिमा की यह तो केवल शुरुआत है. प्रभुदानंद सरस्वती जी कहते हैं कि वृन्दावन कि भूमि तो इतनी पवित्र है कि यदि एक छोटी सी चिड़िया भी उड़ के वृन्दावन में आजाये तो वो भी ठाकुर जी के समान हो जाती है. वृन्दावन में प्रवेश करने के पश्चात् कोई कुछ नहीं रहता, वह केवल ठाकुर का होता है और ठाकुर उसके होते हैं. श्रीधाम वृन्दावन हर प्रकार से पूर्ण है परन्तु फ़िर भी जो मूर्ख इस स्थान कि कमियों को देखते हैं, वो तो अंधे हैं और मेरी युगल सरकार के चरणों में यह विनती है कि मुझे मरते दम तक इन अन्धो का दर्शन न हो क्योंकि ये लोग तो जब में हंसाई के पात्र हैं. फ़िर प्रभुदानंद जी कहते हैं मेरे नेत्र वृन्दावन कि सुंदरता को देखकर खुशी से झूम जाएँ, मेरी बुद्धि यहाँ के प्रेम के रस में डूब जाये, मेरा शरीर यहाँ कि हवाओं के साथ बह जाये और मै लोट लोट के ब्रज रज को अपने ऊपर लगा लूं और एक लकड़ी कि भाँती मै हर ब्रजवासी के चरणों में गिर पडूं. वो विधाता से यही प्रार्थना करते हैं कि हे! इश्वर जो वृन्दावन सरे जगत को प्रेम और भक्ति का पाठ पढाता है, मै हमेशा उस वृन्दावन से प्यार करूँ, जहाँ उस कदम्ब के वृक्ष के तले, वो सांवरा सलोना यशोदा नंदन अपनी पीताम्बरी ओढ़े किशोरी जी के मुख-चंद्र का दर्शन करता हो और मधुर स्वर में मुरली बजता हो. 

बंधुओ, इस ग्रन्थ के भाव तो उतने ही गंभीर हैं जितने गोपी गीत के. इसलिए मुझ मंद-बुद्धि के लिए इस ग्रन्थ का सार लिखना तो नामुमकिन है पर हाँ ऊपर कुछ श्लोकों का विवरण लिखने कि चेष्टा ज़रूर की है. हमारा वृन्दावन तो इतना दिव्य है कि जब एक बार गोस्वामी तुलसीदास जी ने वृन्दावन और स्वर्ग को तराजू पे तोला, तो यही निष्कर्ष निकला,

वृन्दावन और स्वर्ग को तोले तुलसीदास
भारी भू पर रह गयो, और हलकों गयो आकास

हमारे वृन्दावन के सामने तो स्वर्ग भी हल्का रह गया. द्वापर में जब एक बार वरुण देव नन्द बाबा को उठा ले गए थे, तो प्रभु उन्हें वापिस लाने के लिए वरुण लोक में पधारे थे. जब प्रभु अपने ग्वाल बालों के पास आये तो उन्हें लगा कि कन्हैया ने अपने बाबा को कोई दिव्य लोक को दर्शन करायो है और वो जिद करने लगे कि कन्हैया तू हमें अपने गोलोक को दर्शन करा. ठाकुर जी ने उन्हें समझाया कि जो वृन्दावन के वासी हैं वो गोलोक नहियो जाते क्यूंकि वृन्दावन तो गोलोक से भी श्रेष्ठ है पर ग्वाल बल नहीं माने. तो प्रभु ने उन्हें आंख बंद करने को कहा और आंख बंद करते ही वो सब एक दिव्य धाम में पहुच गए जिसका एक बहुत बड़ा प्रवेश द्वार है और वहां बड़े बड़े भक्तो कि सवारी निकल रही है. वो सारे गोप उस दरवाज़े के अंदर घुसे और अपने कन्हैया के महल को ढूँढने लगे. जब वो चल रहे थे तो पीछे से गोलोक का एक मंत्री आया और जोर से चिल्लाया, "ग्वालों सावधान". वो सारे बालक डर गए. पूछा "बाबा, का भयो, हमसे कोई भूल है गयी है". तो वो मंत्री बोला कि "अरे ग्वालों तुम्हे चलना नहीं आता, यह बैकुंठ है, यहाँ केवल नाचते हुए चलने का नियम है". ग्वाल बाल सब एक दूसरे का चेहरा देखने लगे कि ये अच्छा गोलोक है. तभी एक ग्वाल पीछे से बोला, "हम नाच के तो चल लेंगे पर आप नेक ये बता दो कि हमारो कन्हैया कहाँ हैं". वो मंत्री फ़िर चिल्लाया कि अरे ग्वालों तुम्हे तो बोलना भी नहीं आता. यहाँ तो केवल गाते हुए बोलना होता है. अब सारे बालक घबरा गए कि भैया ये क्या मुसीबत है. अगर बोलने को मन होए, तो पहले तबला ढोलक को इंतजाम करो, तब मुह से आवाज़ निकल सकते हैं और इसी घबराहट ने सबने आँख खोल दी और देखा कि उनका कन्हैया उनके सामने खड़ा है और वो वापिस अपने ब्रज में पधार चुके हैं. तो सब ग्वाल बालों ने भागवत में कहा है कि स्वर्ग से भी अच्छा तो हमारा वृन्दावन है. 

श्री राधा राणी के पग पग पर प्रयाग जहाँ 
केशव की केलि-कुञ्ज, कोटि-कोटि काशी है
यमुना में जगन्नाथ, रेणुका में रामेश्वर, 
तरु-तरु पे पड़े रहत अयोध्या निवासी हैं
गोपिन के द्वार पर हरिद्वार बसत जहाँ
बद्री, केदारनाथ , फिरत दास-दासी हैं
तो स्वर्ग, अपवर्ग हमें लेकर करेंगे क्या
जान लो हमें हम वृन्दावन वासी हैं

बंधुओ, मेरा मन तो बहुत है कि वृन्दावन कि महिमा के विषय में और भी लिखूं, पर कुछ मर्यादाएं हैं जिन्हें निभाना आवश्यक है. हमारे श्रीधाम वृन्दावन कि महिमा तो अनंत है पर हम एक लेख को अनंत नहीं बना सकते, इसलिए मै अपने शब्दों को तो यहाँ विराम दे रहा हूँ पर आप सबको बताते हुए मुझे अपार हर्ष ह्पो रहा है कि मुझे लाडली जू ने अपने धाम में इस शनिवार को नरसिंह जयंती के अवसर पर बुलाया. मै कुछ चित्र आप सब भक्तों के लिए लाया था और यहाँ उन सब चित्रों का संग्रह आपको सौंपता हूँ. अधिकारिक नियमों के कारण बांके बिहारी जी के और बंदरों के डर के कारण निधि-वन के चित्र मै न ला पाया. 


यह वही कदम्ब का वृक्ष है जो ठाकुर जी की अनेक लीलाओं का साक्षी है. काली देह पर स्थित यह वृस्क्ष वास्तव में प्रभु के आनंद में डूबा हुआ प्रतीत होता है. 

यह है जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा नव-निर्मित प्रेम मंदिर.

ये हैं प्रेम मंदिर में विराजमान हमारे रसिक आचार्य स्वामी श्री हरिदास जी महाराज

प्रेम मंदिर में गोवर्धन लीला का दर्शन 

श्री कृपालु जी महाराज कि सजीव प्रतिमा 

नरसिंह जयंती के शुभ अवसर पर रौशनी में नहाया हुआ हमारे ठाकुर बांके बिहारी जी का मंदिर. आज कल रोजाना ठाकुर जी के फूल बंगले सजते हैं और वो नित्य शाम को भक्तों के करीब आकर उन्हें दर्शन देते हैं. 


ठाकुर श्री राधा रमण लाल के दर्शन. राधा रमण जी भी फूल बंगले में विराजमान हैं और अपने सर्वांग के दर्शन दे रहे हैं. 

राधा रमण लाल कि संध्या आरती 


ठाकुर श्री राधा स्नेह बिहारी जी महाराज

मै आशा करता हूँ कि आपको यह चित्र देख के आनंद का अनुभव हुआ होगा. अपना कीमती समय देकर यह लेख पढ़ने के लिए आपका धन्यवाद. अंत में केवल इतना ही कहना चाहूँगा 

एक बार अयोध्या, दो बार द्वारिका, तीन बार जाके त्रिवेणी में नहाओगे 
चार बार चित्रकूट, नौ बार नासिक, बार बार जाके बद्रीनाथ घूम आओगे
कोटि बार कशी, केदारनाथ, रामेश्वर, गया, जगन्नाथ, चाहे जहाँ जाओगे
होते है दर्शन, प्रत्यक्ष यहाँ बिहारी जू के, वृन्दावन सा आनंद कहीं नहीं पाओगे